लेखक : प्रमोद कुमार शर्मा, जन्म 01/05/1965, शिक्षा- एम कॉम, वरिष्ठ उद्घोषक, आकाशवाणी बांसवाड़ा, नाटक में एक वर्षीय पाठ्यक्रम, 17 किताबें प्रकाशित, राजस्थानी भाषा, साहित्य, संस्कृति अकादमी बीकानेर का मुरलीधर व्यास कथा पुरस्कार, संपर्क: 9414506766
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आज पढ़ें : अंजस:भाषा के तर्पण का विशेष अनुष्ठान
(इसी आलेख से…… यानी कहने को साहित्य संस्कृति और कला के इस समारोह में कलाएं थी मगर, उनकी आधार भूमि, उनका चिंतन वहां मौजूद नहीं था । फेस्टिवल की तर्ज पर सब कुछ किया गया। जैसे मेला या मौज मेला। किंतु भाषा के अचेतन में कोई स्फूर्ति ना हो पाएगी, यह निश्चित है। लगभग दर्शक खाने-पीने और मौज मेला करने के लिए वहां पर आए थे। जो कि वहां लगी स्टॉलस पर मौजूद भीड़ बता रही थी ।).........
जोधपुर में रेख्ता फाउंडेशन का दो दिवसीय सृजनात्मक महोत्सव "अंजस" संपन्न हुआ। अंजस। गर्व। अभिमान। खुशी ।प्रसन्नता। यदि शब्दार्थों के पीछे, गहरे में उतरें तो न हीं गर्वानुभूति, ना ही अभिमान, ना हीं खुशी ना हीं प्रसन्नता जैसी कोई अनुभूति, यह आयोजन राजस्थान और राजस्थानी को दे पाया। सिवाय सैल्फियों की भरमार, बेशुमार प्रचार और आत्ममुग्धता के विस्तार के अलावा। यह महोत्सव जितना चमकीला था: उतना ही धार हीन। यहां समय के उस कक्ष की खोज नहीं की जा सकी जहां खड़े होकर राजस्थानी रचनाकार अपनी बात कह पाते। वह धरातल वहां नदारद था। जो था; वह बहुत लुभावना; चित्ताकर्षक और मनोरंजक था।
बहुत अच्छा लगा होगा झोपड़ी को महल में अंगड़ाई लेते हुए।
रेख़्ता के इस महा आयोजन में राजस्थानी की जाजम के तमाम खिलाड़ी मौजूद थे।मगर किसी का तिलिस्म काम न आया। कोई भी पंक्ति चिंगारी ना बन सकी ।बल्कि भाषा का स्तर गिरा। छंद बरखा कवि सम्मेलन में रूपसिंह राजपुरी की कविता "छोरियों भाजण भूजण में के पड़यो हैं" से पता चलता है कि आयोजक भाषा को किस खेत में बीज रहे थे। यह कोई महोत्सवीय स्तर नहीं ।रूपसिंह यह हास्य कविता मंच पर कई बार पढ़ चुके हैं। यह राजस्थानी की मुख्यधारा का स्वर नहीं है। मोनिका गौड़ भाषा की मान्यता के लिए स्थूल सा गीत गा रही थी। हालांकि आईदान सिंह भाटी भी मौजूद थे। लेकिन उनकी पंक्तियां भी वहां पर गर्जना ना कर सकी। अखबार में हैड लाइन तो क्या बनती।
तीन पांडाल। 15 स्टेज ।सौ से ज्यादा नामचीन लेखक। कलाकार। 15000 दर्शक। इला अरुण से अयोध्या प्रसाद गौड़ की बातचीत ।शैलेश लोढ़ा से आरजे रेक्स की बातचीत । दोनों आकर्षण के केंद्र थे । इला मौलिक कलाकार है । उन्होंने राजस्थानी संगीत को फिल्मों में प्रतिष्ठा दी है । मगर फिल्म माध्यम कितना विश्वसनीय रहा है? भाषा के पेटे ? मान्यता के संघर्ष के पेटे? नये समाज के पेटे? राजस्थान के दर्द के पेटे कोई बात वहां पर नहीं हुई ।
लोढ़ा से रैक्स बहुत ना उगलवा पाए। लोढ़ा भी राजस्थानी अभिनेता के संघर्ष और दिशा खोजने की जगह स्वप्निल होकर उत्तर देते रहे।
पत्रकारिता सेशन में, भूमाफिया, बिजली, भू अधिग्रहण, शिक्षा और चिकित्सा में भ्रष्टाचार, स्लम, मजदूर, पानी या स्थानीय राजनीति को छुआ भी नहीं गया।
तीन सदियां री जातरा में हुक्म सिंह भाटी ने राजस्थानी के इतिहास को प्रतिशोध का इतिहास बताया।यह पूरा सत्य नहीं। यहां त्याग और प्रेम भी मुल्य रहे हैं। अर्जुन देव चारण ने तीन सौ बरस को उपलब्धि भरा बताया।यह बड़बड़ाहट है। हम जब कुछ नहीं कर पाते तब अतीत का ढोल पीटने लगते हैं। पिछले पचास बरस में हमारे पास एक भी शिव बटालवी नहीं है।
इधर जो बात आकर्षित कर रही थी, वह थी लोक संगीत की तरंग। यह रंग, लगभग समारोह पर तारी रहा ।लेकिन- कलाकार गुणवत्ता और डैप्थ के लिहाज से राजस्थान को बहुत न कोर पाए। वे अंचभित मात्र करने के लिए गा रहे थे।
*एक संगीत संध्या पर मोहनपुरी की यह फेसबुक पोस्ट:
वह-वाह ! कान्या मान्या कुर्र ...तो,गजब गाया।
मैं-पर मुझे तो रेडियो पर गाया कालूराम प्रजापति का याद आ रहा है।
यानी कहने को साहित्य संस्कृति और कला के इस समारोह में कलाएं थी मगर, उनकी आधार भूमि, उनका चिंतन वहां मौजूद नहीं था । फेस्टिवल की तर्ज पर सब कुछ किया गया। जैसे मेला या मौज मेला। किंतु भाषा के अचेतन में कोई स्फूर्ति ना हो पाएगी, यह निश्चित है। लगभग दर्शक खाने-पीने और मौज मेला करने के लिए वहां पर आए थे। जो कि वहां लगी स्टॉलस पर मौजूद भीड़ बता रही थी ।
राजस्थानी के विकास पर गीता सामोर ,अर्जुन देव चारण मधु आचार्य आशावादी, राजेंद्र बारहठ ,कोई विशेष प्रकाश या नई बात ना कह पाए । वहीं सीपी देवल ,माधव हाडा, मालचंद तिवारी ,गिरधर दान रत्नू, रामस्वरूप किसान, सत्यनारायण सोनी,भरत ओला, की उपस्थिति भी ढाणी तक भाषा का प्रकाश न ला सकी।फिल्म समस्या पर गोविंद श्रोत्रीय, रवि झांखल,रामकुमार सिंह और बिना राकावत की बातचीत भी बाजार की भीड़ में खो गई ।राजस्थानी फिल्म की समस्या सिनेमा हॉल नहीं है। उसकी पहली समस्या उसका निर्माण है ।अभी जिस तरह से ख्याली सहारण राजस्थानी में लघु फिल्में बना रहे हैं वह अनुकरणीय है ।जिस प्रकार से पंजाबी भाषा वालों ने वहां की फिल्मों को बरसों पहले ही हिंदी से भी आगे ले जाकर छोड़ दिया था ,वह काम हमें स्क्रिप्ट और अभिनय के स्तर पर करना होगा ।एक अच्छी फिल्म को थिएटर खुद-ब-खुद मिलता है ।याद होगा जब राजस्थानी में" जय बाबा रामदेव "फिल्म आई थी ,तो लोग कतारों में लगकर के श्रद्धा के साथ फिल्म देखा करते थे। और आज भी ,वह फिल्म लगती है -तो लोग उसे देखते हैं।
एक बात और इस तरह के पा़ंचतारा आयोजन, भाषा को बनावटी ,दिखावटी और कमजोर बनाते हैं ।यह राजपथ पर चल रही जीवन की भाषा नहीं ।राजस्थान बहुत मायनों में उपेक्षित है ।यह इस बात से प्रमाणित होता है कि राजस्थान अभी पूरी तरह रेल मार्ग से भी नहीं जुड़ा है ।ऐसे में आवश्यकता 5 तारा सृजनात्मक समारोहों की नहीं, बल्कि जनपद में ,ढाणियों में ,छोटी-छोटी नुक्कड़ गोष्ठियों की है। रतजगों की है। जहां पर भाषा के जागरण के गीत गाए जा सकें।फिर भी रेखता फाऊंडेशन को तमाम लोगों ने अच्छा कवरेज दिया और प्रतिष्ठा दी ।यह उनके आयोजन की सफलता ही कही जा सकती है ।इसके लिए रेख़्ता की टीम को रंग।